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जरा सोचिए ... लेख

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जरा सोचिए...  जरूरी नहीं की हर रिश्ते में प्रेम हो। क्योंकि प्रेम ऐसी चीज है किसे से हो सकता है या सब कुछ होते हुए भी नहीं हो सकता, लेकिन रिश्तों के बीच सबसे प्रमुख चीज एक दूसरे को सुनना और समझना होता है। आदमी की जिंदगी सामाजिक तौर पर बहुत मजबूत मानी जाती है। पर जिनके बीच होती है उनके बीच भले गहरा प्रेम न हो लेकिन अगर एक दूसरे को समझने की शक्ति नहीं है तो वह ठीक बात नहीं। हमारे भारतीय समाज में परिवार की बड़ी भूमिका होती है। स्त्री, पुरुष के परिवार में जाती है और आज के समय में बहुत कम परिवार है जो आज भी लड़कियों को लड़कों जितनी शिक्षा नहीं दे रहा। सब चाहते हैं की लड़की हो चाहे लड़का अपने पैरों पर खड़ा हो सके और निर्णय लेने और उस निर्णय लेने के पीछे की रीड स्वयं विकसित करे । सवाल यहां उठता है की अगर अपने घर की लड़की है तो उसे संस्कारित और अच्छा परिवार में शादी करना चाहते हैं और अगर लड़की को ब्याह कर लाते हैं तो अक्सर उसे अपने पैर पर खड़ा होने, चाहे उसके ढंग से परिवार चलाने देने से रोकते हैं। अपने ऊपर लेके सोचें की अगर अपने घर की लड़की को विदा करते हैं तो यह स्वीकार कर सकत...

जीवन और जीवन : ~ अचिंत्य मिश्र

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  जीवन के विषय में अध्ययन करना जितना ज्यादा मुश्किल है उतना ही ज्यादा आसान कार्य है । लेकिन सिर्फ इतना कह देने से बात नहीं बनती । आम तौर पर जीवन को जितना समझा जाय है उतना समझने की चीज़ नहीं है । जीवन को "जैसे" शब्द के साथ जोड़ना यानी किसी के साथ तुलना करना उसकी महानता को कम करना है ।  गहराई में जाने पर यह महसूस होता है कि जीवन स्वयं में एक बड़ा अनुभव है और स्वयं का अनुभव ही जीवन समझने की महत्वपूर्ण दृष्टि है । अनुभव शब्द स्वयं का होता है। दूसरों का अनुभव महज बात हो जाती है। जिसे ज्यादा तर लोग कहा और सुना करते हैं। स्वयं का अनुभव दृष्टि है ; दूसरों का अनुभव दोष । मनुष्य दोष तेज़ी से पकड़ता है लेकिन दृष्टि को देर से अनुभव करता है या अपने जीवन काल में भी शायद नहीं कर पाता। अनुभव स्वयं एक जीवीत शब्द है जिसका अंत हो जाता है ।  मनुष्य स्वयं का नहीं हो पाता । स्वयं शब्द साध लेना सरल प्रक्रिया नहीं हो सकती । और इसका सरल न होना का कारण स्वयं मनुष्य है । हम समाज में रहते हैं, हम एक सीमित दायरे में रहते हैं, हम किसी धर्म के संरक्षण में रहते हैं, हम अपनी सुरक्षा के लिए किसी महापुरुष के पथ...

भाषा महज भाषा नहीं : अचिन्त्य मिश्र

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  भाषा महज भाषा नहीं इ सपर विचार क्या करना कि माँ से प्रेम कौन नहीं करता !   शास्त्रो में तो यहाँ तक कहा गया है कि किसी वस्तु/व्यक्ति के साथ सात पग चल लेने मात्र से प्रेम अनुराग पैदा हो जाता है । यह अनुराग साथ चलते हुए एक संवाद के बीच घटता है जिसमें भाषा का साम्राज्य सबसे व्यापक है | इसी के माध्यम से प्रेम में परिचित हुआ जाता है, इसी के माध्यम से होती है बातें, होता है राग, होता है वैराग्य ।   माता के गर्भ से ही बच्चे भाषा सीखना प्रारंभ कर देते हैं   जो मां ग्रहण करे वही वे लेते हैं | बहुत सूक्ष्म दृष्टि से खान-पान के अतिरिक्त वे गर्भ से ही विचारों का भी रस पी रहे होते हैं ! जो कुछ भी उसकी मां के माध्यम से आता है, बिना उसके गुण- दोषों की परवाह किए बिना निरपेक्ष अवस्था में वे उसका संचय कर रहे होते हैं | भाषा की गंभीरता के विषय में कुछ विचार करना   एक अलौकिक बीज को बोने जैसा है, जिसका परिणाम मस्तिष्क में ढेर सारे विचारों के मानिंद फल-फूल कांटे सा लद जाता है । मनुष्य अपने आपको   बहुत अच्छे से जनता है या अगर नहीं जानता है तो ऐसा कहने में कोई गुरेज नहीं ...

मेरे बड़के बाबा और दादी : संस्मरण

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 मेरा लगाव उनसे तब बढ़ा जब वे बीमार पड़ने लगे थे और उनके लिए यह एक पड़ाव के अंत जैसा था। जैसे कोई व्यक्ति अपने कर्म छेत्र से रिटायर हो जाता है । वे रिटायर होकर गाँव से शहर आये थे। शहर का घर उनके छोटे भाई यानी मेरे बाबा द्वारा बनवाया हुआ था । बड़का बाबा दादी (बाबा के माँ बाप) के सबसे जेष्ठ पुत्र यानी (ताऊ जी, जिन्हें हम बड़के बाबा के ही नाम से संबोधित करते हैं ) और उनकी नवी संतान यानी मेरे बाबा में बाप-बेटे के उम्र का फर्क था , और प्रेम भी उतना ही था । पढ़ने लिखने में मेरे बाबा बहुत तेज़ थे, उनकी तमाम कहानियाँ बड़के बाबा और दादी जब घर आ गए थे तो सुनाया करते थे; जिसमें  से एक प्रकरण यह था कि जब मेरे बाबा आगे की शिक्षा लेने गोरखपुर आ गए थे तो बड़के बाबा बलरामपुर गोंडा में अपनी साठ रुपया तनख्वाह में से चालीस से पचास रुपया बाबा के पास भेज देते थे । बाबा चूँकि बहुत तेज़ थे, उन्होंने अपनी उन्नीस वषों तक आते आते परास्नातक की शिक्षा पास कर ली और पास होते ही उन्हें संत एंड्रयूज कॉलेज में अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी थी | बड़के बाबा और दादी दोनों खाने-खिलाने के बहुत शौकीन थे । वे जब भी गोरखपुर आते थ...