भाषा महज भाषा नहीं : अचिन्त्य मिश्र
भाषा महज भाषा नहीं
इसपर विचार क्या करना कि माँ से प्रेम कौन नहीं
करता ! शास्त्रो में तो यहाँ तक कहा गया
है कि किसी वस्तु/व्यक्ति के साथ सात पग चल लेने मात्र से प्रेम अनुराग पैदा हो
जाता है । यह अनुराग साथ चलते हुए एक संवाद के बीच घटता है जिसमें भाषा का साम्राज्य
सबसे व्यापक है | इसी के माध्यम से प्रेम में परिचित हुआ जाता है, इसी के माध्यम
से होती है बातें, होता है राग, होता है वैराग्य । माता के गर्भ से ही बच्चे भाषा सीखना प्रारंभ कर देते हैं जो मां ग्रहण करे वही वे लेते हैं | बहुत
सूक्ष्म दृष्टि से खान-पान के अतिरिक्त वे गर्भ से ही विचारों का भी रस पी रहे
होते हैं ! जो कुछ भी उसकी मां के माध्यम से आता है, बिना उसके गुण- दोषों की
परवाह किए बिना निरपेक्ष अवस्था में वे उसका संचय कर रहे होते हैं | भाषा की
गंभीरता के विषय में कुछ विचार करना एक
अलौकिक बीज को बोने जैसा है, जिसका परिणाम मस्तिष्क में ढेर सारे विचारों के
मानिंद फल-फूल कांटे सा लद जाता है । मनुष्य अपने आपको बहुत अच्छे से जनता है या अगर नहीं जानता है तो ऐसा कहने में कोई
गुरेज नहीं कि फिर कोई दूसरा उसे
जानने-समझने में मदद नहीं कर सकता | लेकिन जब बात आती है किसी दूसरे को समझने की
या उसके लिखे विचारों, भाषणों को जानने की तो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि
हम अपनी काबिलीयत पर भी विचार कर लें |कहते हैं कि काबिलीयत कुछ लोगों में प्रकृति
प्रदत्त होती है और कुछ लोग उसे अपनी
मेहनत से बनाते हैं | उस मेहनत में व्यक्ति की इच्छा-शक्ति का होना सबसे
महत्वपूर्ण बात है | क़ाबिलीयत को पुख्ता करने में बहुत और कुछ भी करना होता है पर
सही दिशा में उसे ले जाने के लिए
शास्त्रों का अध्ययन , गुरुओं का सामीप्य और बराबर कुछ सीखने की ललक बहुत
आवश्यक है | इन सभी कर्मों में गति के लिए भाषा को समझना और उसके निहितार्थ को
अपने लिए लागू करना एक विशेष पद्धति के अंतर्गत रखा जा सकता है |
भाषा के अध्ययन की कोई विशेष विधि नहीं है ।
निरंतर पढ़ते -सुनते रहने से एक समझ पैदा होती है, जो परिपक्वता
का रास्ता प्रशस्त करती है। बुनियादी रूप में यह समझ बिना कहे या बिना दिखाए गए
आधारों को पकड़ने में काफी मदद करती है, जैसे अगर किसी कवि की कविता को पढ़ने उसकी भाषा अपने तय किए हुए रास्तों से पाठक का परिचय
पहले ही करा देती है वह हमें उस स्थान पर
पहुंचा देती है जहाँ , अर्थात् किसी निहितार्थ तक पहुँचाने के पहले की समझ अर्थात मूल भाव-दृश्य
का साक्षात्कार हो जाता है | कविता का रस, उसकी व्यंजन काव्य के घटित
होने अर्थात् लिखे जाने की बाद की प्रक्रिया है पर भाषा और कविता हमारी क़ाबिलीयत
के आधार पर हमें उसके मूल ढांचे से भी परिचित करा देती है ।
वर्तमान अर्थात् हमारे साथ के उम्र के आस-पास के लोगों से जब
मेरी बात होती है तब मुझे अक्सर एक चुप्पी घेर लेती है | हमारा संवाद मूल ढाँचे और निहितार्थ के बीच पेंडुलम सा
मात्र घूमता-फिरता रह जाता है | उनके आचरण में त्वरित बदलाव और किसी निष्कर्ष पर
पहुँच जाने की बेताबी भाषा के फूल को जैसे खिलने ही नहीं देती । मैं अपने बर्ताव को भी बराबर देखने में लगा
रहता हूँ और अपने बदले स्वरूप में जो स्वयं मुझे भी अच्छा नहीं लगता उसके कारण को
खोजते हुए प्राथमिक तौर पर जिस कारण कोदेखता हूँ वह बदलती दुनिया के केंद्र में
टेक्नोलोजी के गलत प्रयोग से है | उदाहरण के रूप में स्मार्ट फ़ोन की स्मार्ट
दुनिया में एक सहज व्यक्ति को जैसे असहजता की तरफ धकेला जा रहा है | उनकी प्रवृत्तियां टेक्नोटाईज भाषा के सम्मोहन
में गिरफ़्त सी दिखाई पड़ती हैं | वे जिस प्रकार फेसबुक, यूट्यूब पर अनेक वीडियो देखते हैं ; एक तरफ लड़ाई और दूसरी ही तरफ तरफ
प्रेम कहानी, वहां कोई सिलसिला नजर नहीं आता । ऐसे छोटे छोटे अंतरालों की ऐसी
टेक्नोटाईज कहानियाँ या दृश्य किसी भाव
अथवा भाषा को जन्म नहीं दे रहे होते हैं बल्कि इस दुनिया से उन्हें कहीं और ले जा
कर के पटक रहे होते हैं | इनसे जो सबसे बड़ी घटना इस वक्त घट रही है वह मनुष्य के
विचारहीनता की है |
मनुष्य भाषाएं चाहे कई जानता हो लेकिन वह अंदर ही अंदर विचार करता
है | उसकी अपनी मातृभाषा उसे सामग्री देती है एक गाड़ी देती है जिसपर वह सवार होकर
तमाम भाषाई सन्दर्भों को देख रहा होता है कुछ बन रहा होता है | अभी बीच में हिंदी
भाषी लोगों के बीच उनके द्वारा बोली जा रही भाषा को हिंगलिश कहने का फैशन आ पड़ा था
| ये बात अब पुरानी हुई हिंगलिश में फिर भी गनीमत थी पर अब जब भाषा के पीछे और बीच
में कहे जाने वाले कंटेंट ही गायब हैं तब इस पर गंभीरता से विचार करने का समय आ
गया है |
संवाद की बड़ी भूमिका होती है , भाषा में परिष्कार संवाद के ही माध्यम से पनपता है | प्रेम के बीच
प्रगाढ़ता संवाद के भाषा रूपी पुल के द्वारा ही अपने मुकाम पर पहुँच पाता है | हमें
निरंतर प्रयास से अपने देश की भाषा और पूरी दुनिया की भाषा के बीच से गायब हो रहे
भाषाई तत्त्व अर्थात संवाद पर निरंतर ध्यान रखने की आवश्यकता है क्योंकि मनुष्यता
के बीज उसी भाषा के संवाद में छुपे हुए हैं |
जीवन की तरह ही भाषा भी उसी बीज का प्रतिफल बीज
है जिसे परमात्मा ने बो तो दिया है लेकिन किस रूप में उस बीज की सेवा करनी है इसकी
डोर हमारे हाथों में है । मित्रों इस जीवन रूपी पेड़ को उगाने के लिए भाषा पर ध्यान
देना उसकी कटाई-सिंचाई करना भी हमारा कर्तव्य है । हिंदी के जाने माने कवि कुंवर
नारायण जी की कविता है ' बात सीधी थी पर ' इस कविता को यहाँ शामिल करना मैं ज्यादा अच्छा समझूंगा बजाए सिर्फ
सार बताने के , कविता कुछ इस प्रकार है
' बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
जरा टेढ़ी पड़ गयी
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गयी।
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने की बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ सुनाई दे रही थी
तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह,
आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी।
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया।
ऊपर से ठीक ठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत,
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछते हुए देखकर पूछा-
"क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा?" '
कविता स्पष्ट है कि किस प्रकार आदमी अपनी बात को
सुंदर और अच्छा रूप देने के चक्कर में मूल भाव से वंचित रह जाता है , और तो और अगर सुंदर रूप देना चाहता है तो क्या भाषा को सहूलियत से
बरतना सीखा है या नहीं.!
भाषा का जान जाना इतनी सरल प्रक्रिया भी नहीं है , जीवन निकल जाता है पूरी भाषा नहीं आती, भाषा आने का तात्पर्य सिर्फ बोल - चाल , लिखने, समझने से नहीं है , सम्पूर्ण भाषा आने का अर्थ है परमात्मा हो जाना , जिसे हमने आज तक नहीं सुना है । उसका मौन रहना ही उसकी शक्ति का
परिचय देती है। साथियों मौन भी एक भाषा है जिसका अर्थ है चेतना-शक्ति का विकास करना ।
अपनी भाषा से दूर होना हमारे लिए एक दुःख का विषय
है ,और यही कारण भी है जिससे आज कल बुद्धिजीवियों की
संख्या कम होती जा रही है, इस वैश्वीकरण के दौर
में किसी भी संस्कृति का हावी होना स्वाभाविक तो है ही लेकिन इस प्रकार हावी होना
कि हमारी मूल भाषा हमसे दूर हो यह अनुचित है।
भाषा में संवेदना वह मुलायम त्वचा है जो कि शरीर
पर ठोस हड्डियों और मांस पर चढ़ी रहती है । त्वचा मुलैमियत, और सौम्यता का प्रतीक है जो एक कठोर इंसान के भीतर
प्रेम के रूप में अपना वितान गढ़ती है |महाकवि
सचितानंद वात्स्यायन अज्ञेय जी ने मनुष्य के भीतर लालच और दुष्कर्म करने का साहस
देख कर कहाँ है कि " किसी मनुष्य को गधा कहना किसी पशु को गाली देना है
" स्वभाव में संवेदना को परिपक्व करना भी एक जरूरी तत्व है, जीवन के बीज को
फलित करने के लिए।
भाषा को महज एक दिवस के रूप में देखना, आदर देना, विभिन्न चर्चाएँ करना-कराने से काम नहीं चलेगा, हमें सजग होकर
इसके लिए अपने-आप को संवेदनशील बनाना होगा |
सादर
अचिन्त्य मिश्र
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