जीवन और जीवन : ~ अचिंत्य मिश्र

 

जीवन के विषय में अध्ययन करना जितना ज्यादा मुश्किल है उतना ही ज्यादा आसान कार्य है । लेकिन सिर्फ इतना कह देने से बात नहीं बनती । आम तौर पर जीवन को जितना समझा जाय है उतना समझने की चीज़ नहीं है । जीवन को "जैसे" शब्द के साथ जोड़ना यानी किसी के साथ तुलना करना उसकी महानता को कम करना है ।  गहराई में जाने पर यह महसूस होता है कि जीवन स्वयं में एक बड़ा अनुभव है और स्वयं का अनुभव ही जीवन समझने की महत्वपूर्ण दृष्टि है । अनुभव शब्द स्वयं का होता है। दूसरों का अनुभव महज बात हो जाती है। जिसे ज्यादा तर लोग कहा और सुना करते हैं। स्वयं का अनुभव दृष्टि है ; दूसरों का अनुभव दोष । मनुष्य दोष तेज़ी से पकड़ता है लेकिन दृष्टि को देर से अनुभव करता है या अपने जीवन काल में भी शायद नहीं कर पाता। अनुभव स्वयं एक जीवीत शब्द है जिसका अंत हो जाता है । 

मनुष्य स्वयं का नहीं हो पाता । स्वयं शब्द साध लेना सरल प्रक्रिया नहीं हो सकती । और इसका सरल न होना का कारण स्वयं मनुष्य है । हम समाज में रहते हैं, हम एक सीमित दायरे में रहते हैं, हम किसी धर्म के संरक्षण में रहते हैं, हम अपनी सुरक्षा के लिए किसी महापुरुष के पथ पर चलने का निर्णय करते हैं और जीवन पूरा करते करते मृत्युशैया पर पहुंच जाते हैं । समाज हमे सीख देता फिरता है , दायरा हमे लोगो के बीच अच्छा इंसान की उपाधि दिलाता है, किसी धर्म का पालन करना हमे नित्य कर्म बतलाता है और महापुरुषों के राह पर चलने से मनुष्य सुरक्षित ढंग से जीता है। लेकिन सच तो यह है कि जीवन जीने का सही ढंग कोई नहीं है । सही ढंग खोजने के बजाए हमे स्वयं का ढंग खोजना चाहिये । दूसरों की बातें से हमें ये तो पता लग सकता है कि क्या करना चाहिए लेकिन यह नहीं पता लगता कि क्यों करना चाहिये । जीवन क्या से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जीवन क्यों है इसपर ध्यान लगाया जाए। 

जीवन पर बहुत गंभीरता से सोचना या विचार करना और स्वयं का अनुभव भी अंधकार की दुनिया में प्रवेश दिलाता है । गहरे में जाना अंधकार में जाना है । अंधकार में महज उतरना ही बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के समान है । अंधकार अगर दुःख और निराशा का प्रतीक है तो निश्चित यह मान लेना चाहिए कि कहीं तो प्रकाश मिल सकता है । अंधकार एक रहस्य है और रहस्य की खोज करना रहस्य में डूब जाना है । रहस्य में रस खोजना मनुष्य की प्रवृत्ति है जो उसे जिलाए हुए है । इसलिए मनुष्य रस खोजता है ना कि रहस्य में डूबने का प्रयास करता है । 

इसलिए मुझे तो यह समझ आता है कि कोई भी महापुरुष कोई भी आध्यत्मिक गुरु आदि सब रस की बातें ज्यादा करते हैं , बजाए रहस्य के । रस जीवन है, रहस्य अंधकार है। जिससे सब भागते हैं , सब अस्वीकार करते हैं । मनुष्य का जीवन काल अगर रहस्य खोजने में लग जाए तो वह अंधकार को समर्पित हो जाएगा । रहस्य या अंधकार समर्पित करने का असीम कुंड है । जिसमे चले जाना ही उसका प्रयोजन है । रस प्राप्ति आसान है और यह कुंड सुगंध , स्वाद , सौंदर्य से भरा कुंड है । जिसके कारण मनुष्यता जीवित है वरना मनुष्य का जीवन भी एक रहस्य है जो पूर्ण: अंधकार है । मेरा अनुभव तो यह है कि जीवन स्वयं एक अंधकार है । जीवन के विषय में गहरे में जाना अंधकार से ही गुजरना है । जो आप सबके लिए महज एक बात है और मेरे लिए एक बड़ा अनुभव । 

हम जैसे जैसे बड़े होते हैं वैसे वैसे हमे समझ आता है कि शब्दों का अर्थ वह नहीं रह जाता जो हमे सिखाया गया था, परिभाषा वह नहीं रह जाती जो रटाइ गई थीं , दायरे वह नहीं रह जाते जिनमे रहने को कहा जाता था । दरअसल वे अर्थ , परिभाषा और दायरे जीवन को समझने और बच्चों में समझ पैदा करने वाले उस प्रकाश के समान हैं जो प्रकाश अंधेरे जंगल की पतली पगडण्डी पर राहगीरों की जरूरत होती है । और जब उस ऊबड़ खाबड़ पगडण्डी पर पाँव रखना आ जाता है , तब भीतर से स्वयं प्रकाश जन्म लेता है। और लगबक लगबक बाहरी प्रकाश की जरूरत नाम मात्र हो जाती है। यहां जिस भीतरी प्रकाश की बात है वह असल में हमारा विवेक है। जो हमारी चेतना को, हमारी समझ को परिपक्व करता है ।  

जीवन में अनेक मोड़ आते हैं और हर मोड़ एक नया मोड़ होता , जरूरी तो यह है कि मोड़ को अपने ढंग से समझें अपने ढंग से चुने । क्योंकि सही और गलत की कोई परिभाषा नहीं है । जीवन किसी सही गलत , अच्छा बुरा , ऊँच नीच , सफल असफल आदि प्रकार के विलोम के सिद्धांत से परे है । एक चीज़ जो सबने अनुभव किया होगा कि जब तक लोग खुद परिस्थितियों से नहीं गुजरते तब तक गुरु या किसी अनुभवी की बात उन्हें बहुत समझ नहीं आती ।

असल में पूरी दुनिया मिल कर भी अभी तक जीवन को समझ नहीं पाई है आगे भी समझ नहीं पाएगी फिलहाल मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंच पाता हूँ । असल मे निष्कर्ष भी एक व्यर्थ शब्द है । जीवन जगत दोनों तर्कातीत हैं । मन वाणी से आगम अगोचर। अब इन्हें नया शब्द दिया जा सकता है । पर नया शब्द भी अन्तः शब्द बन कर रह जाएगा।  जीवन मे जो भी रस है । वो मेरे ख्याल से अभूज है । जो विरस है उतना ही समझ मे आता है । जिस प्रकार किसी अंग में जबतक कोई चोट या बीमारी न हो तब तक उस अंग का बोध नहीं हो पाता। कोई स्वस्थ स्वास्थ्य की चर्चा नहीं करता । संसार की चर्चा भी संसार के किसी अंग के बीमार होने की सूचना देते हैं । अब यह सिलसिला कब तक चलेगा इसे कहाँ तक सोचा जाय। मैंने सुना है कि दुनिया के महान दार्शनिक ज्यं पाल सार्त्र ने अपने अंतिम समय मे यही कहा था कि बहुत सोचने की जरूरत नहीं है , जिओ और मज़े में सिगरेट पियो । यह सुनी सुनाई बात सच है कि झूठ यह तो नहीं कह सकते , पर इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं दिखता । भारत के एक बड़े चिंतक अस्टावक्र ने राजा जनक से यही कहा था कि जो सामने करणीय कार्य आ जाए उसे निपटा दो और फिर स्वयं में लौट जाओ , शांत हो जाओ , मौन हो जाओ यही सभी परम प्रश्नों का परम उत्तर है । इति।



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